प्राचीन भारत के इतिहास में 'सेक्युलर' राज्यपद्धति का उल्लेख नहीं
अनादि काल से ‘हिन्दू राष्ट्र’ ही भारत की पहचान थी। त्रेतायुग के राजा हरिश्चंद्र और प्रभु श्रीराम, द्वापरयुग के महाराजा युधिष्ठिर, कलियुग के राजा हर्षवर्धन, अफगानिस्तान के राजा दाहिर, मगध के सम्राट चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी महाराज आदि का राज्य कभी ‘सेक्युलर’ नहीं था, अपितु ‘हिन्दू राष्ट्र’ ही था । इस्लामी एवं ब्रिटिश शासनकाल में भी हिन्दू राजाओं ने यह पहचान बनाए रखी थी ।
१९४७ में भारत का विभाजन तो केवल धर्म के आधार पर ही हुआ था । इसलिए विभाजन के पश्चात पाकिस्तान ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ पाकिस्तान’ तथा वर्ष १९७१ के पश्चात पाकिस्तान से स्वतंत्र हुआ बांग्लादेश ‘इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश’ के रूप में पहचाना जाने लगा, तो फिर शेष भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ क्यों घोषित नहीं किया गया ? निश्चितरूप से इसके पीछे षड्यंत्र था । अधिकांश हिन्दू राजाओं के राज्यों का विलय कर बनाए गए भारत को पंथनिरपेक्ष पद्धति से चलाने का विचार ही अनुचित था ।
यूरोपीयन-ईसाई अवधारणा है सेक्युलर शब्द ! ७ दिसंबर १८९१ को ‘रिजनर’ नियतकालिक के सम्पादक जॉर्ज जेकब हॉलिओक ने ‘सेक्युलरिज्म’ का उल्लेख ‘चर्च के उपदेश एवं अनुशासन से मुक्त जीवन’, के अर्थ में किया था । यूरोपीयन राज्यप्रणाली के अनुसार राजकाज करते समय किसी भी पंथ का आधार न लेना (ईसाई धर्म में प्रोटेस्टेंट, कॅथोलिक इत्यादि अनेक पंथ है) पंथनिरपेक्षता है ! भारत के संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द जोडा गया, मात्र उसकी व्याख्या तथा अर्थ स्पष्ट नहीं किया गया । भारत में चर्च के अनुशासन से देश नहीं चलता, इस कारण इस शब्द का उपयोग किस उद्देश्य से करें, यह आज भी स्पष्ट नहीं है !
इस सेक्युलर शब्द की आड में तत्कालीन सरकार ने धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों के लिए विभिन्न योजनाएं तथा सुविधाएं देना आरंभ किया । धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक आयोग, अल्पसंख्यक मंत्रालय आरंभ किए गए । यहां पर भी ‘अल्पसंख्यक’ की व्याख्या तो बताई है किंतु किस आधार पर किसी समुदाय अथवा पंथ को अल्पसंख्यक कहा जाना चाहिए, यह स्पष्ट नहीं किया गया है । इसके द्वारा मात्र हज यात्रा के लिए अनुदान, मस्जिदों के मौलानाओं को वेतन, सच्चर आयोग द्वारा शिक्षा के लिए अनुदान, इस प्रकार कुछ संप्रदाय विशेष को सरकारी सुविधाएं दी जा रही हैं । यह सेक्युलर संकल्पना के विरुद्ध है ।
३. ‘सेक्युलर’ शब्द का अर्थ ‘धर्मनिरपेक्षता’ मानना अनुचित है । आज ‘सेक्युलर’ शब्द का अर्थ सीधे-सीधे ‘धर्मनिरपेक्षता’ लगाया जाता है । प्रत्यक्ष में भारत के संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द का शासकीय अधिकृत अनुवाद ‘धर्मनिरपेक्ष’ नहीं, ‘पंथनिरपेक्ष’ है । भारत सरकार द्वारा राष्ट्रपति महोदय के हस्ताक्षर में प्रकाशित भारतीय संविधान के हिन्दी संस्करण में कहीं भी ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है । ‘सेक्युलर’ शब्द का अनुवाद ‘पंथनिरपेक्ष’ किया गया है । तात्पर्य, सेक्युलर के लिए ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का उपयोग करना ही असंवैधानिक है ।
‘सेक्युलर’ शब्द का अर्थ ‘धर्मनिरपेक्षता’ करने से हिन्दुओं पर हुए गंभीर परिणाम ! देश के नास्तिकतावादी लोगों ने ‘सेक्युलर’ शब्द का अर्थ ‘धर्मनिरपेक्षता’ लगाकर उसे हिन्दुओं के प्रत्येक धर्माचरण से जोेडने का प्रयत्न किया है । सरकारी विद्यालय में जाना हो, तो माथे पर तिलक लगाना धर्मांधता, शासकीय कार्यालय में भगवान की पूजा करना धर्मांधता, ऐसी छोटी-छोटी कृतियों को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर बंद अथवा अपमानित करने का प्रयत्न किया जा रहा है । प्रसारमाध्यम एवं बुद्धिजीवी निरंतर हिन्दुओं को बताते रहते हैं, ‘आप धर्मनिरपेक्ष हैं ।’ हिन्दू समाज भी इस षड्यंत्र की बलि चढ, धर्मनिरपेक्ष बनने के लिए अपना धर्म, संस्कृति तथा परंपराओं को भूलने लगा है । उसी बीच इस ‘सेक्युलरिजम’ की बलि चढ, कोई मुसलमान शुक्रवार की नमाज नहीं भूला है, कोई ईसाई रविवार को चर्च जाना नहीं भूलता है । शासन उन्हें सरकारी कार्यालय से विशेष समय निकालकर नमाज पढने की सुविधा देता है । अनेक राज्यों में रमजान के महीने में विद्यालय मुस्लिम विद्यार्थियों को आधे दिन के उपरांत छुट्टी देते हैं । इतना ही नहीं, अपितु हिन्दुओं के बडे तथा संपन्न मंदिरों पर यह सेक्युलर सरकार कब्जा जमाकर बैठी है । यह कैसी अर्थहीन धर्मनिरपेक्षता है ?
२६ जनवरी १९५० को भारत द्वारा स्वीकृत मूल संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द नहीं था ! वर्ष १९४७ में गठित ‘संविधान सभा’ में हुई लंबी चर्चाके उपरांत भी २६ नवंबर १९४९ को बने और २६ जनवरी १९५० को भारत द्वारा स्वीकृत मूल संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द को स्थान नहीं मिला । उस समय संविधान सभा में अनेक लोगों को डर था कि यह शब्द भविष्य में भारत के विवाद का कारण बनेगा ।
१९७६ में इंदिरा गांधी ने असंवैधानिक पद्धति से संविधान में ‘सेक्युलर’ शब्द जोडा ! : वर्ष १९७६ के आपातकाल के समय जब विपक्ष के नेताओं को कारागृह में ठूंसा गया था (अर्थात लोकतंत्र का अस्तित्व नहीं था), तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पाशविक बहुमत के बल पर संविधान की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ शब्द जोडा । इसके लिए उन्होंने भारतीय संविधान में ४२ वां संशोधन किया । भारतीय नागरिकों की ओर से १९५० में ही भारत के नागरिकों ने संविधान स्वीकार किया है, तो २६ वर्ष के उपरांत उस प्रस्तावनारूपी वचन में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’, ये परिवर्तन करने का अधिकार तत्कालीन कांग्रेस को किसने और कैसे दिया ?
संसद को संविधान के ‘अनुच्छेद ३६८’ के अनुसार संविधान में संशोधन करने का अधिकार है ! डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की अध्यक्षता में बने मूल संविधान के ही ‘अनुच्छेद ३६८’ के अनुसार, संविधान में संशोधन करने का अधिकार संसद को दिया गया है । इस अनुच्छेद के पहले प्रावधान में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ‘देश के संविधान में कुछ भी हो, संसद अपने संवैधानिक अधिकारों का उपयोग कर, इस संविधान के किसी भी प्रावधान में कुछ जोडकर, फेरबदल कर अथवा उसे हटाकर संशोधन कर सकती है ।’ इसका अर्थ समाजहित में संविधान में संशोधन करना असंवैधानिक नहीं है । संविधान में आज तक (दिसंबर २०१९ तक) १२६ संशोधन हुए हैं । भारत के समाजसेवी, देशभक्त एवं धर्मप्रेमी हिन्दू इस ऑनलाईन याचिका (पीटिशन) द्वारा केंद्र शासन से मांग करते हैं कि -‘भारतीय संविधान’ की प्रस्तावना में ‘सेक्युलर’ शब्द रद्द करनेवाला संवैधानिक संशोधन किया जाए । भारतीय संविधान में ‘ईश्वर’ एवं धर्म’ इन दो तत्त्वों को स्थान दिया जाए । सेक्युलर शब्द की जगह भारत की प्राचीन आध्यात्मिक परंपरा से जुडा ‘स्पिरिच्युअल’ शब्द जोडा जाए । ‘सेक्युलर’वादियों द्वारा अस्तित्वहीन ‘धर्मनिरपेक्षता’ शब्द का उपयोग करने के लिए कानून द्वारा पाबंदी लायी जाए । ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की अधिकृत व्याख्या शासन को परिभाषित करनी चाहिए !
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